जब बुराई अपनी सभी सीमाएं तोड़कर अच्छाई पर हावी हो जाती है, तो कभी कभी बुराई को मिटाने के लिए छल का सहारा लेना पड़ता है। श्री कृष्ण को पांडवों की विजय का सूत्रधार माना जाता है।
श्रीमदभगवद्गीता के अनुसार जब अर्जुन अपने परिवारजनों को युद्ध में अपने समक्ष देखकर जब साहस खो देता है और रणभूमि छोड़कर जाने लगे तब श्री कृष्ण ने उन्हे गीता का ज्ञान दिया और उन्हें कहा कि इन सभी योद्धाओं को गौर से देख लो। यह योद्धा सबसे महान और पराक्रमी योद्धा है। परंतु इस युद्ध के पश्चात तुम इन्हें नहीं देख पाओगे। आने वाले कई युगों तक ऐसे महान योद्धा इस धरती पर जन्म नहीं लेंगे।
धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश के लिए यदि अधर्मियों को पराजित कर इस पृथ्वी को पापमुक्त करना हो तो इसके लिए छल-कपट का सहारा लेना अधर्म नहीं होगा।
धर्म और अधर्म के इस युद्ध में विजय का परचम लहराने के लिए कई महान योद्धाओं को छलपूर्वक तथा कई योद्धाओं को युद्ध नियमों के विरुद्ध मारा गया। इनमें से कई योद्धा पांडवों के पक्ष में थे और कई योद्धा कौरवों के पक्ष में थे। लेकिन आज हम केवल उन्हीं पाँच योद्धाओं के बारे में बात करेंगे जिन्हें धर्म की स्थापना के लिए छल से मारना पड़ा था।
भीष्म पितामह: महाभारत के सबसे शक्तिशाली तथा सर्वश्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ योद्धा गंगा पुत्र भीष्म पितामह थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान था। उन्होने केवल अपने राज भक्ति के कारण ही कौरवों के पक्ष में रहकर युद्ध करने का निर्णय लिया। इनको पराजित किए बिना पांडवों का युद्ध में विजयी होना लगभग असंभव था। क्योंकि भीष्म कौरवों की सेना के सेनापति के तौर पर उनकी ढाल बने हुए थे। 18 दिन चले महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह अकेले ही 10 दिनों तक पांडवों की सेना का संहार करते रहे और पांडवों की विजय में सबसे बड़ी बाधा सिद्ध हुए।
ऐसी स्थिति में भगवान श्री कृष्ण के कहने पर अर्जुन अपने रथ पर शिखंडी को लेकर आते हैं। शिखंडी ना ही पुरुष था और ना ही स्त्री। अब चूंकि भीष्म शिखंडी को स्त्री मानते थे और इसी रहस्य से पांडव भी परिचित थे। पितामह की स्त्रियों पर अस्त्र-शस्त्र ना उठाने की प्रतिज्ञा का लाभ उठाते हुए अर्जुन ने युद्ध के दसवें दिन भीष्म को बाणों से छलनी कर दिया। भीष्म ने बाणों की शय्या पर लेटकर अपने प्राण त्याग दिये।
गुरु द्रोणाचार्य: द्रोणाचार्य कौरवों और पांडवों के गुरु थे और उनको पराजित कर पाना सरल नहीं था। भीष्म पितामह की तरह द्रोणाचार्य भी पांडवों की विजय में सबसे बड़ी बाधाओं में से एक थे। इन्हें आमने-सामने के युद्ध में पराजित कर पाना संभव नहीं था। द्रोणाचार्य पुत्र-मोह में बंधे हुए थे। इनके पुत्र का नाम अश्वत्थामा था।
जब रणभूमि में भीम ने अश्वत्थामा नाम के हाथी को मार डाला तो यह खबर फैला दी गई कि अश्वत्थामा मारा गया। जब गुरु द्रोणाचार्य को यह पता चला तो उन्हे विश्वास नहीं हुआ इसीलिए उन्होने धर्मराज युधिष्ठिर से पूछा, “क्या अश्वत्थामा मारा गया?”
युधिष्ठिर कभी असत्य नहीं बोलते थे। इसका उत्तर देते हुए उन्होने कहा, “अश्वत्थामा मारा गया! लेकिन ये नर भी हो सकता है और हाथी भी।”
परंतु जब युधिष्ठिर यह कह रहे थे ठीक उसी समय श्री कृष्ण ने शंख बजाया जिससे कि द्रोणाचार्य बात को सही ढंग से सुन नहीं पाए और शोक में आकर उन्होने अपने अस्त्र-शस्त्र त्याग दिए। इसी मौके का लाभ उठाकर द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न नें गुरु द्रोणाचार्य का वध कर दिया।
जयद्रथ: जयद्रथ कौरवों और पांडवों के जीजा जी थे। जयद्रथ का विवाह दुर्योधन की बहन के साथ हुआ था। चूंकि अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु का वध कौरवों ने छल से किया था इसी का प्रतिशोध लेने के लिए अर्जुन ने ये प्रतिज्ञ ली थी कि अगले दिन युद्ध में सूर्यास्त होने से पूर्व वे जयद्रथ का वध कर देंगे नहीं तो वे स्वयं अग्नि समाधि ले लेंगे।
उस दिन पूरी कौरव सेना जयद्रथ की सुरक्षा में लग गई। तब भगवान श्री कृष्ण ने अपनी माया से सूर्य को छुपा दिया और सूर्यास्त का दृश्य रचा। सूर्यास्त का आभास होते ही जयद्रथ अर्जुन के सामने आए और उन्होने अर्जुन का परिहास करते हुए यह कहा कि अब तुम्हें अग्नि समाधि लेनी होगी जैसी तुमने प्रतिज्ञ ली है।
तभी श्री कृष्ण ने अपनी माया दूर कर दी और वापिस से सूर्य को बाहर निकाला। तत्पश्चात ही अर्जुन के प्रहार से जयद्रथ की मृत्यु हो गई।
कर्ण: युद्ध के 17 दिन बीत चुके थे और अनेकों वीर योद्धा वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। अब अर्जुन के समक्ष रणभूमि में धर्म की स्थापना के मार्ग में कर्ण अबतक की सबसे बड़ी चुनौती थी। दोनों ही वीर धनुर विद्या के धुरंधर थे। वे दोनों ही एक दूसरे के बाणों एवं प्राकर्म से प्रभावित थे। एक ही माँ के गर्भ से जन्मे इन सपूतों में से एक नियति के पक्ष में था तो दूसरा नियति के विरुद्ध। एक सत्या और धर्म की सेना का नायक था तो दूसरा असत्य एवं अधर्म की सेना का।
लेकिन उस दिन भी वही हुआ जो होता आया है। मौत बनकर एक श्राप सामने आया और कर्ण के रथ का पहिया कीचड़ में धस गया। लेकिन उससे भी बड़ी परीक्षा अर्जुन की थी। क्योंकि अगर एक निहत्थे योद्धा पर प्रहार करता तो क्या कहता समाज। परंतु अब इन सबके लिए समय नहीं था। श्री कृष्ण के कहने पर अर्जुन ने बड़े ही बेमन से अर्जुन ने बाण चलाया और कौरवों के महारथी अंगराज कर्ण का वध कर दिया।
दुर्योधन: महाभारत का युद्ध अंत की ओर बढ़ रहा था और कौरवों की ओर से दुशासन, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कृतवर्मा तथा दुर्योधन के अतिरिक्त कोई भी अन्य योद्धा जीवित नहीं बचा था। अंत के समय में दुर्योधन तथा भीम में गदा युद्ध हो रहा था। भीम दुर्योधन पर प्रहार तो कर रहे थे लेकिन उन्हे कोई क्षति नहीं पहुंचा पा रहे थे। क्योंकि अपनी माता गांधारी के वरदान के कारण दुर्योधन का शरीर वज्र के समान मजबूत हो गया था परंतु उसकी जंघा वज्र के समान मजबूत नहीं थी और युद्ध में कमर के नीचे वार करना निषेध था। ऐसे में भीम को भी छल का सहारा लेना पड़ा था।
श्री कृष्ण ने भीम को दुर्योधन की जंघा पर वार करने का संकेत दिया। जैसे ही फंडू पुत्र भीम अपनी गदा दुर्योधन की जंघा पर मारी तो दुर्योधन धरती पर गिर गया और मारा गया।
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