जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया और पांडव विजयी हुए। तब
धृतराष्ट्र और गांधारी दोनों अकेले हो गए। कुंती पुत्र भीम ने धृतराष्ट्र के 100
पुत्रों को मार डाला। युद्ध के पश्चात पांडवों का राजतिलक हुआ और हस्तिनापुर में
प्रवेश करने के लिए स्वयं भगवान श्री कृष्ण गए। भगवान श्री कृष्ण पांडवों से कहा
धृतराष्ट्र और गांधारी अकेले हो गए हैं, सारा महल सुनसान हो चुका है, हम वहाँ चलकर उनको प्रणाम करते हैं।
वह महल जहां लोग ही लोग होते थे, मंत्रियों और राजाओं से भरी सभा होती थी,
सेवक-सेविकाएँ होती थी और किसी माता-पिता के 100 पुत्र होते थे। अब वह महल सुनसान
हो चुका था।
भगवान श्री कृष्ण जैसे ही उनके कक्ष में पहुंचे धृतराष्ट्र
पूछ रहा था कि “पांडव कहाँ है, पांडव कहाँ है?” उनके
कक्ष में भीम कि एक प्रतिमा रखी हुई थी।
दुर्योधन भीम को मारने के लिए उसकी प्रतिमा पर गदा अभ्यास
किया करता था। इसीलिए वो बहुत बलवान था।
पांचों पांडव पहुँच गए, श्री कृष्ण आगे
थे।
धृतराष्ट्र खड़े हैं, जैसे ही युधिष्ठिर धृतराष्ट्र को प्रणाम
करते है धृतराष्ट्र बोले, भीम कहां है,
भीम कहां है? मुझे भीम को गले लगाना है उसे बाहों में भरना
है। भीम दौड़ता हुआ धृतराष्ट्र की ओर गया। श्री कृष्ण ने भीम को रोका और भीम की
प्रतिमा को आगे कर दिया। जैसे ही धृतराष्ट्र ने प्रतिमा को बाहों में लिया ओर इतनी
ज़ोर से दबाया कि मूर्ति चकनाचूर हो गयी।
पांडव घबरा गए!
जब कृष्ण ने गांधारी के पाँव छूए तो वे बोली दूर हटो मुझसे
तुम्हारे कारण ही मेरे 100 पुत्र इस दुनिया में नहीं है, आज मेरा वंश समाप्त हो चुका है। इसके ज़िम्मेवार सिर्फ तुम हो कृष्ण। मैं
तुमसे बहुत क्रोधित हूँ, मैं तुम्हें श्राप देती हूँ।
तुम भगवान विष्णु के अवतार हो जिनकी मैं दिन-रात पूजा करती
हूँ और अपने परिवार की सुख एवं शांति की प्रार्थना करती हूँ, किन्तु तुमने मेरे वंश का नाश कर दिया है।
मैं जानती हूँ की तुम चाहते तो युद्ध रुकवा सकते थे, परंतु तुमने ऐसा नहीं किया। यह युद्ध तुमने ही करवाया है।
गांधारी रोते-रोते बोली ”अगर मैंने भगवान विष्णु की सच्चे
मन से पूजा की है और निस्वार्थ भाव से अपने पति की सेवा की है तो जिस तरह मेरा कुल
समाप्त हो गया, आज से ठीक 36 वर्ष पश्चात ऐसे ही तुम्हारे
सामने तुम्हारा वंश एक-दूसरे से युद्ध करके समाप्त हो जाएगा। जिस तरह हम दोनों
(धृतराष्ट्र और गांधारी) संसार में अकेले रह गए हैं उसी तरह तुम्हारे जीवन का जब
अंतकाल आएगा तुम भी इस संसार में अकेले पड़ जाओगे। यादव वंश का पूर्णतय: नाश हो
जाएगा।
परंतु भगवान तो भगवान है, और गांधारी को प्रणाम
किया और बोला मैं तो आशीर्वाद की प्रतीक्षा कर रहा था। आपका श्राप भी मैं अपने
मस्तक पर ग्रहण करता हूँ।
जब कृष्ण पलटे तब पांडवों ने देखा कि श्री कृष्ण के चेहरे
पर श्रपित होने का कोई भाव नहीं था। भगवान मुस्कुराए और पांडवों से कहा- चलो।
भगवान ने अर्जुन के कंधे पर हाथ रखकर कहा- अर्जुन लीला तो
देखो मेरे यदुवंश को ये वरदान था कि कोई दूसरा उन्हे नहीं मार सकेगा, मरेंगे तो आपस में लड़कर ही मरेंगे।
देखो इस श्राप के कारण यह व्यवस्था भी हो गयी।
गांधारी के श्राप का प्रभाव:
श्राप में गांधारी ने जो भी कहा था वह सच होने लगा। द्वारिका में मदिरा सेवन करना प्रतिबंधित था लेकिन महाभारत के 36 साल बाद द्वारिका
के लोग इसका सेवन करने लगे। लोग संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करने के बजाय धीरे-धीरे
विलासितापूर्ण जीवन का आनंद लेने लगे। गांधारी के श्राप का प्रभाव यादव वंश पर इस
प्रकार हुआ कि उन्होने भोग-विलास के आगे अपने सारे अच्छे आचरण, अनुशासन, विनम्रता और नैतिकता को त्याग दिया।
श्री कृष्ण पहले ही जानते थे कि ऐसा होगा, भला भगवान से कभी क्या छुपा है। कृष्ण और रुक्मणी का पुत्र साम्ब ही यादव
वंश के विनाश का कारण बना।
तब एक दिन महर्षि विश्वामित्र, गणों, देवर्षि नारद आदि द्वारका नगरी पधारे।
वहाँ यादव कुल के नवयुवकों ने उनके साथ परिहास करने का सोचा। उसके लिए वे श्री कृष्ण के पुत्र सांब को स्त्री-वेश में ऋषियों के सामने ले गए और कहा कि ये स्त्री गर्भवती है। आप लोग बताइये कि इसके गर्भ से क्या उत्पन्न होगा।
नवयुवकों के ऐसा कहने के बाद ऋषिगण ध्यान करने लगे और जब
उन्हे पता चला उनके सामने ये सभी जिसे स्त्री बता रहे है वो वास्तव में पुरुष है
तो उनको बड़ा क्रोध आयाऔर फिर उन्होने नवयुवकों से कहा तुम लोगों ने हमारा अपमान
किया है, इसलिए श्री कृष्ण का ये पुत्र एक लोहे के मूसल को जन्म देगा, जिससे तुम लोग अपने समस्त कुल का संहार करोगे।
ऋषियों के श्राप के प्रभाव से दूसरे ही दिन सांब ने मूसल को
जन्म दिया।
उधर अपनी नगरी में अपशगून होते देख श्री कृष्ण समझ गए कि
कौरवों की माता गांधारी का श्राप सत्य होने का समय आ गया है। उन्होने देखा कि इस
समय वैसा ही योग बन रहा है जैसा महाभारत के युद्ध के समय बना था।
फिर श्री कृष्ण ने यदुवंशियों को तीर्थ-यात्रा करने की
आज्ञा दी। श्री कृष्ण की आज्ञा से सभी राजवंशी समुद्र के तट पर प्रभास तीर्थ आकर
निवास करने लगे। प्रवास तीर्थ में रहते हुए एक दिन सात्यकी ने आवेश में आकर कृत
वर्मा का उपहास उड़ाया और अनादर कर दिया। कृत वर्मा ने भी कुछ ऐसे अपशब्द बोले कि
सात्यकी को भी क्रोध आ गया और उसने कृत वर्मा का वध कर दिया।
यह देख अंधक वंशियों ने सात्यकी को घेर लिया और उस पर हमला
कर दिया। सात्यकी को अकेला देख श्री कृष्ण के पुत्र प्रद्युमन उसे बचाने दोड़े और
सात्यकी एवं प्रद्युमन अकेले ही अंधक वंशियों से भीड़ गए। परंतु संख्या में अधिक
होने के कारण वे अंधक वंशियों को पराजित नहीं कर पाए और अंत में उनके हाथों मारे
गए।
अपने पुत्र और सात्यकी की मृत्यु से क्रोधित होकर श्री
कृष्ण ने एक मुट्ठी घास उखाड़ ली। हाथ में आते ही वह घास वज्र के समान भयंकर लोहे
की मूसल बन गयी। जो कोई भी वे घास उखाड़ते वह भयंकर मूसल में बदल जाती। उन मूसलों
के एक ही प्रहार से प्राण निकल जाते थे। उस समय काल के प्रभाव से सभी वीर मूसलों
से एक दूसरे का वध करने लगे। यदुवंशी भी आपस में लड़ते हुए मरने लगे।
श्री कृष्ण के देखते ही देखते सांब, चारुदेष्ण, अनिरुद्ध, और गद
की मृत्यु हो गयी।
अपने वंश के पतन के बाद श्री कृष्ण विचार मंथन के लिए जंगल में एकांत में गए थे और एक पेड़ के साथ पीठ लगाकर, अपने दायें पैर को बाएँ पैर पर रखकर और आँखें बंद किए बैठे थे।
इसी समय जरा नाम का एक शिकारी वहाँ शिकार कि खोज में आया। भगवान श्री कृष्ण के फैले हुए गुलाबी पैर शिकारी को हिरण के कान मालूम पड़ रहे थे और अनजाने में उसने तीर चला दिया, जो भगवान के पैर में लगा।
इस तरह गांधारी का श्राप फलित हुआ और अपने वंश का नाश अपनी आँखों के सामने देख श्री कृष्ण संसार त्याग कर भगवान विष्णु में समाहित हो गए।
Post a Comment