अर्जुन और कर्ण में श्रेष्ठ कोन है? श्री कृष्ण ने जो बात बताई उसे सुन अर्जुन के होश उड़ गए

Shri Krishna Arjun

महाभारत का युद्ध धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश के लिए कुरुक्षेत्र में लड़ा गया था। इसमे श्री कृष्ण ने पांडु-पुत्र अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया। श्रीमदभगवद्गीता हिन्दू धर्म का सबसे पवित्र ग्रंथ माना जाता है। इसमें ऐसी कई कथाओं का विवरण मिलता है जिससे हमें मानवीय मूल्यों के बारे में ज्ञान प्राप्त होता है।


आज हम आपको श्री कृष्ण, अर्जुन और महारथी कर्ण से जुड़े ऐसे प्रसंग के बारे में बताएँगे जिसे जानने के बाद आप हैरान हो जाएंगे। जैसे भगवान श्री कृष्ण के मुख से सुनकर अर्जुन आश्चर्य चकित हो गए थे।


महाभारत के युद्ध में दानवीर कर्ण का वध करने के पश्चात जब अर्जुन अपने शिविर में लौटे तो उन्होने श्री कृष्ण से कहा, “हे केशव! कर्ण को अपनी धनुर विद्या पर बहुत गर्व था। वह हमेशा मेरी बराबरी करना चाहते थे। जिस कर्ण का सिर हम पांडवों के सामने कभी नहीं झुका उसी कर्ण का सिर आज मैंने धड़ से अलग कर उसका सारा घमंड चकनाचूर कर दिया।“ आप व्यर्थ में ही कर्ण की वीरता की प्रशंसा करते रहते थे, जबकि मैंने उसे कई बार पराजित किया था।


अर्जुन की इन अहंकारी बातों को सुनकर पहले तो वासुदेव कृष्ण मुस्कुराए, फिर बोले, हाँ ये सच है कि तुमने कर्ण को कई बार पराजित किया। लेकिन इसका ये अर्थ नहीं कि कर्ण एक श्रेष्ठ योद्धा नहीं था। भगवान श्री कृष्ण की ये बात सुनकर अर्जुन को क्रोध आ गया। उसने कहा हे केशव! आप क्या चाहते हैं? क्या मैं श्रेष्ठ योद्धा या श्रेष्ठ धनुर्धर नहीं हूँ?


Bheesm pitamah death

श्री कृष्ण फिर मुस्कुराए और बोले पितामह भीष्म तुम्हारे बाणों के कारण ही तो बाण शय्या पर पड़े थे पार्थ, तो क्या तुम पितामह से श्रेष्ठ योद्धा हो गए? इसके उत्तर में अर्जुन ने कहा, केशव, पितामह से मैं कभी श्रेष्ठ नहीं था। परंतु कर्ण से मैं अवश्य श्रेष्ठ हूँ।


केशव आपको स्मरण हैं ना मैं जब भी युद्ध में कर्ण के रथ पर बाण चलाता था उसका रथ मेरे बाण के प्रहार से 10 कदम पीछे चला जाता था। जबकि जब कर्ण मेरे रथ पर अपने बाणों से प्रहार करता था तब मेरा रथ केवल 2 कदम ही पीछे हट जाता था। क्या दोनों के बाणों के प्रहारों की शक्तियों में इतना अंतर सिद्ध नहीं करता कि मैं श्रेष्ठ धनुर्धर हूँ।


श्री कृष्ण बोले, नहीं पार्थ नहीं! तुम मुझे सबसे प्रिय हो। मैंने तुम्हें अपना दिव्य और विराट रूप भी दिखाया है। तुम तो मुझे जानते ही हो कि मैं कोन हूँ।


अर्जुन बोले, जी केशव मैं जनता हूँ कि आप तीनों लोकों के स्वामी है।


श्री कृष्ण बोले, तो फिर पार्थ तुम तो ये भी जानते हो मैं स्वयं तीनों लोकों का भार लिए तुम्हारे रथ पर बैठा था। जिसे तनिक भी कोई हिला नहीं पाता था। पर फिर भी कर्ण के बाणों के प्रहार से तुम्हारा रथ 2 कदम पीछे हट जाता था। लेकिन तुम उसके रथ को केवल 10 कदम ही पीछे हटा पाते थे।


अब तुम ही निर्णय लो पार्थ कि किसके बाणों के प्रहार में अधिक शक्ति थी। पार्थ असल में कर्ण तुम्हारा पहला शत्रु नहीं है बल्कि अहंकार तुम्हारा पहला शत्रु है। इसीलिए तुम अपने शत्रु के अधीन होकर समझ रहे हो कि कर्ण का वध तुमने किया है।


इस बार बातें सुनकर अर्जुन और भी क्रोधित हो गए और बोले, केशव रथ को पीछे धकेलने की बात तो ठीक है, लेकिन कर्ण का वध मैंने नहीं किया, इसमें क्या संदेह है।


कृष्ण बोले, नहीं अर्जुन! तुमने कर्ण का वध नहीं किया। तुम तो उसके वध के लिए केवल एक माध्यम बने थे। वास्तव में कर्ण का वध जमदगनी पुत्र भगवान परशुराम के श्राप के कारण हुआ है।


श्री कृष्ण के मुख से ऐसी बातें सुनकर अर्जुन अचंभित रह गए और कृष्ण से पूछा, कैसा श्राप माधव? कृपया विस्तार से बताएं।


इसके बाद श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया जब तुम्हारे गुरु द्रोणाचार्य नें कर्ण को शिक्षा देने से मना कर दिया तो उसके बाद कर्ण ब्राह्मण के वेश धारण करके परशुराम जी से अस्त्र-शस्त्र विद्या प्राप्त करने महेंद्र पर्वत चले गए। ऐसा उन्हें इस लिए करना पड़ा क्योंकि भगवान परशुराम केवल ब्राह्मण कुमारों को ही शिक्षा देते थे। वहाँ कर्ण ने परशुराम जी से धनुर विद्या के साथ साथ कई विद्या शास्त्रों का ज्ञान भी प्राप्त किया।


एक दिन कर्ण की गोद में सिर रखकर गुरु परशुराम सो रहे थे। उसी समय एक कीड़े ने कर्ण की जंघा को काट लिया जिससे उसकी जंघा से खून बहने लगा। परंतु गुरु के नींद में होने के कारण वे पीड़ा सहते रहे। थोड़ी देर बाद गुरु परशुराम जी की नींद खुल गई। 


जब उनकी नज़र कर्ण की जंघा पर पड़ी तो उन्हे बहुत क्रोध आया और बोले कर्ण तुमने मेरे साथ छल किया है। तुमने मुझसे छल से विद्या ग्रहण की है। तुम ब्राह्मण नहीं हो सकते क्योंकि क्षत्रिय के अलावा कोई भी इतनी पीड़ा नहीं सहन कर सकता। बताओ तुम कौन हो।


Karn ko shraap

गुरु को क्रोध में देखर कर्ण परशुराम जी के चरणों में सिर झुकाकर बोले, गुरुदेव मैं एक सूतपुत्र हूँ। कर्ण की ये बात सुनकर परशुराम और ज़्यादा क्रोधित हो गए और उन्होने कर्ण को श्राप दे दिया कि जिस समय तुम्हें मुझसे ग्रहण की हुई विद्या की सबसे ज़्यादा आवश्यकता होगी तब तुम सारी विद्या भूल जाओगे।


यही वो श्राप था जिसके कारण कर्ण का वध हुआ और इससे भी बड़ा सत्य ये है कि यह युद्ध कर्ण ने जानबूझकर हारा है। यह बात सुनकर अर्जुन बोले, यह क्या कह रहे हैं माधव? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है।


श्री कृष्ण बोले, हाँ पार्थ! तुम नहीं जानते, कर्ण के सेनापति बनते ही मैं उन्हे धर्म के मार्ग का निमंत्रण देने उसके शिविर में गया था। परंतु उसने कहा कि भले ही दुर्योधन अधर्म के पथ पर हो, फिर दुर्योधन से मित्रता निभाना मेरा परम धर्म है।


इसीलिए वो प्राण त्याग देगा परंतु अपने मित्र के साथ छल नहीं करेगा और वही उन्होने किया। अधर्मी से मित्रता भी निभाई और अपने प्राण देकर धर्म की विजय का पथ भी प्रसस्त कर दिया।


हाँ पार्थ, तुमने कर्ण के अंतर में झाँककर नहीं देखा। कर्ण की आत्मा एक महान आत्मा थी। पार्थ ऐसे लोग युगों-युगों में कभी-कभार ही पैदा होते हैं। लोग कर्ण को दानवीर यूं ही नहीं कहते। जाते जाते भी उसने अपना दान-धर्म निभाया।


पांडवों अर्थात धर्म के हित में उसने अपने प्राण दान कर दिये। पार्थ यदि तुम्हें कभी कर्ण के जीवन के पूर्ण सत्य का पता चलेगा तो तुम स्वयं धरती पर सिर रखकर उसे प्रणाम करोगे।

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